Monday, September 12, 2011

उजड़ चुकी ही सही...

ग़ज़ल
उजड़ चुकी ही सही हैं तो बस्तियां फिर भी।
ख़ामोशीयोँ ने कही हैं कहानियां फिर भी।

लबे-ब-मुहर जिये हम कि तू ना रुसवा हो,
उठाई हम पे मगर तूने उँगलियाँ फिर भी।

भँवर हज़ार मिले वक़्त के समन्दर में,
रवाँ रही हैँ मुहब्बत की कशतियाँ फिर भी।

लिया है जोग भी बनवास भी सहा लेकिन,
हमें ना हीर मिली है ना चूरियाँ फिर भी।

ये और बात मेरा आशियाँ तमाम हुया,
मेरी तलाश ना छोड़ेंगी बिजलियाँ फिर भी।

तमाम उम्र सदायें लगाते गुज़री है,
खुले ना मेरे लिये दर ना खिड़कियाँ फिर भी।

खुदा के सामने सजदा किया कुफ़र छोड़ा,
गई ना दिल से मगर बुतप्रसतियाँ फिर भी।

ये सच है शोख़ हैं चंचल हैं दिलरुबा हैं ये
मसल ही जाते हैं कुछ लोग तितलियाँ फिर भी।

इनी से रौनक़े बज़्मे हयात कायम है
सितमज़दा हैं मगर चुप हैं लड़कियाँ फिर भी।

तुमारी चाह में हम ख़ाक़ में मिले ग़ाफ़िल
उतर ना पाया तू रुतबों की सीढ़ियाँ फिर भी।
4-11-2007

1 comment:

ਡਾ ਗੁਰਮਿੰਦਰ ਸਿੱਧੂ-ਵਾਰਤਕ said...

..ਵਾਹ..ਹਰ ਸਤਰ ਵਿੱਚ ..ਹਰ ਸ਼ਬਦ ਵਿੱਚ ਕਿੰਨੀ ਗਹਿਰਾਈ ਹੈ